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Jainism
‌‌‌‌‌जैन धर्म

☛ जैन धर्म का विकास छठी सदी ईस्वी में जाकर ही पर्याप्तता प्राप्त कर सका।
☛ जैन धर्म की उत्पति वर्षो पहले हो चुका था।
☛ महावीर के पूर्व जैन धर्म के 23 तीर्थकर हो चूके थे।
☛ पार्श्वनाथ एवं महावीर के पूर्व 22 तीर्थकर के संबंध में कोई अधिक जानकारी नहीं मिल पाता है।
☛ ‌‌‌जैनों के धार्मिक प्रमुख को तीर्थकर कहा जाता है।
☛ तीर्थकरों को जिनेद्रिंय माना जाता था।
☛ तीर्थ शब्द का अर्थ वह निर्मित्त है जिसका सहारा लेकर मनुष्य सांसारिक मोहमाया से विरक्त हो और दुखों से मुक्त होकर मोक्ष का प्राप्त हो।
‌‌‌‌‌ ☛ जैन धर्म के 24 तीर्थकर हुए है-
‌‌‌1.ऋषभदेव 13.विमल
2.अजित 14.अनंत
3.सम्भव 15.धर्म
4.अभिनंदन 16.शांति
5.सुमति 17.कुन्ध
6.पदृमप्रभ 18.अर
7.सुपार्श्व 19.मत्तिल
8.चंद्रप्रभ 20.मुनि सुव्रत
9.सुविधि 21.नेमिनाथ
10.शीतल 22.अरिष्ट नेमी
11.श्रेयांस 23.पार्श्वनाथ
12.वासुपूज्य 24.महावीर स्वामी
‌‌‌‌‌ ☛ ‌‌‌23 वें तीर्थ पार्श्वनाथ
☛ कल्पसूत्र के अनुसार पार्श्वनाथ का जन्म महावीर के लगभग 250 वर्ष पर्व हुआ था।
☛ पार्श्वनाथ के पिता अश्वसेन वाराणसी के राजा थे।
☛ पार्श्वनाथ के माता का नाम वामा था।
☛ पार्श्वनाथ का विवाह प्रभावती कुशस्थल देश की राजकुमारी के साथ हुआ।
☛ पार्श्वनाथ 30 वर्ष की आयु में गृहत्याग दिया।
☛ 83 दिनों कें तप के बाद 84 वें दिन उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई।
☛ पार्श्वनाथ को सम्मेय पर्वत पर ज्ञान की प्राप्ति हुआ था।
☛ पार्श्वनाथ ने चार गणों या संघों की स्थापना किया था और प्रत्येक गण का संरक्षक गणधर कहलाता था।
☛ पार्श्वनाथ के समय में जैन धर्म में पुरूषों एवं महिला को समान महत्व प्राप्त था।
☛ पार्श्वनाथ 70 साल तक जैन धर्म का प्रचार किया और इनके अनुयायी निर्ग्रथ कहलाए।
☛ जैन मत की पॉच मूल शिक्षाओं मे चार-अहिंसा सत्य और अपरिग्रह पार्श्वनाथ द्धारा प्रतिपादित है।
☛ पांचवां तत्व व्रह्मचर्य महावीर ने जोड़ा था।
‌‌‌‌‌ ☛ महावीर
‌‌‌‌‌ ☛ 24 वें तीर्थकर महावीर
☛ 599 ई.पू. में महावीर का जन्म हुआ था कु स्रोतों से ज्ञात होता है और मृत्यु 527 ई.पू. में हुई थी।
☛ जबकि कुछ ग्रथ में इनका जन्म 540 ई.पू. में और मृत्यु 468 ई.पू. में निर्धारित करतें है।
☛ महावीर का जन्म कुण्डग्राम वैशाली बिहार में 540 ई.पू. में हुआ था।
☛ ‌‌‌वैशाली में कुण्डग्ररम की पहचान बसाढ़ से की गई है।
☛ महावीर के पिता सिद्धार्थ ज्ञात्रिक क्षत्रिय गण के मुखिया थे।
☛ महावीर के माता का नाम त्रिशला लिच्छवी नरेश चेटक की बहन थी।
☛ महावीर का विवाह राजकुमारी यशोदा से हुआ।
☛ महावीर के पुत्री का नाम अणोज्जा था।
☛ महावीर का प्रथम अनुयायी बना उनका दामाद जामालिस था
☛ महावीर 30 वर्ष के उम्र में गृहत्याग दिया था।
☛ कल्पसूत्र से ज्ञात होता है कि 12 वर्ष की घोर यंत्रणापूर्ण तपस्या के 13 वें उपरांत महावीर का ज्ञान कैवल्य का प्राप्त हुआ था।
☛ जाम्भियगाम जुम्भिका के नजदीक उज्जुवालिया ऋजुपालिका नदी के किनारे पर शाल वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ।
☛ महावीर के कठोर तप की जानकारी आचारांग सूत्र से मिलती है।
☛ महावीर ने कठोर तप के उपरांत इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर ली थी और उन्हें जिन कहा जाने लगा ।
☛ वर्धमान ने तप के दौरान महान् पराक्रम का प्रदर्शन किया इसलिए वे महावीर कहलाए।
☛ तप के द्धारा ज्ञान कैवल्य की प्राप्ति के कारण उन्हें केवलिन् कहा गया और जैन धर्म के प्रवर्तक होने के कारण उन्हें अर्हत पूज्य भी कहा जाता है।
☛ महावीर की प्रथम शिष्या पदृमावती जोकि चम्पा नरेश दधिवहान की पुत्री थी।
☛ जैन धर्म के प्रचार में महावीर को सहयोग मगध नरेश बिम्बिसार सिन्धु सौवीर के नरेश उदयिन कौशाम्बी नरेश स्तानिक अवन्तिराज प्रघोत आदि ।
☛ महावीर के प्रसिद्ध शिष्य सुरदेव चुल्लसयग आनंद साल्हीहपया कुण्डकोलिय महासयग नन्दनीपिया कामदेव चुलानिपिया संद्धाल और पुत थे।
☛ महावीर की मृत्यु 72 वर्ष की आयु में राजगृह के पास पावा में हो गया।
‌‌‌‌‌ ☛ जैन धर्म के सिद्धांत
☛ ‌‌‌जैन धर्म के सिद्धातों को स्थूल में तीनों भागो में विभक्त किया जाता है-
Bhakti and Sufi Movement
Bharat Ke Parmukh Aitihasik Yuddh Chalukya Dynasty
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☛ 1. दार्शनिक एवं आध्यात्मिक सिद्धांत
☛ 2. व्यावहारिक सिद्धांत
☛ 3. अन्य सिद्धांत
‌‌‌‌‌ ☛ दार्शनिक एवं आध्यात्मिक सिद्धांत
☛ 1.निवृति मार्ग:- मानव को उस संसार से विमुख हो जाना चाहिए जिसमें अंतहीन दुख भरे हुए है।
☛ 2.कर्म तथा पुनजन्म:-मोक्ष प्राप्ति के लिए कर्म से विमुख होना आवश्यक है। इससे ही पुनजन्म से मुक्ति भी मिलती है।
☛ 3.त्रिरत्न:-मोक्ष प्राप्ति के लिए त्रिरत्नों सम्यक् ज्ञान सम्यक् चरित्र और सम्यक् दर्शन का पालन आवश्यक है।
☛ 4.स्यादवाद:- मन स्थिति वैचारिक शक्ति और योग्यता की क्षमता सभी में समान नहीं होती हैं।
☛ 5. अनेकात्मवाद:- आत्मा का अस्तित्व तो है परंतु परम-आत्मकता जैसी कोई चीज नहीं। धर्म और आत्मा का कोई सबंध नहीं है।
☛ 6.अनीश्वरवाद:- ईश्वर आत्मा के श्रेष्ठतम गुणों एवं ज्ञान का व्यक्तीकरण मात्र है। सृष्टि का निर्माता ईश्वर नहीं है।
☛ 7.निर्वाण:-निर्वाण वह अवस्था है जिसमें न तो सुख जैसी कोई चीज होती है और न ही दुख जैसी कोई कर्म होता है और न ही फल।
☛ 8. अहिसां छह जीवों- पृथ्वीकाय जलकाय वायुकाय अग्निकाय वनस्पतिकाय और जसजीवा के प्रति संयमपूर्ण व्यवहार ही अहिंसा है। जसजीवा चलायमान जीव को कहते है।
‌‌‌जैन धर्म के दार्शनिक एवं आध्यत्मिक सिद्धांत उपनिषदों से प्रभावित प्रतीत होते है। मूलत: स्यादवाद ही जैन धर्म की दार्शनिक व्याख्या है।
‌‌‌‌‌ व्यवहारिक सिंद्धात
1.पंच महाव्रत- जैन धर्म के अनुपालन के लिए पांच महाव्रतों का पालन आवश्यक है और वे है-
अहिंसा-अहिंसा परम धर्म है।
कसत्य-कर्म एवं वचन में सत्य का होना आवश्यक है।
अस्तेय- दूसरो की वस्तु को किसी भी रूप में स्वीकार नहीं करना छल-कपट या लोभ से
ब्रहृाचर्य-निष्काम आचरण की प्रवृति।
अपरिग्रह-अनावश्यक संग्रह का निष्रेध।
2.त्रिगुणव्रत- पंच महाव्रतों से अतिरिक्त जैनो के लिए तीन गुण व्रतों का पालन भी आवश्यक ‌‌‌है। गृहस्थों के लिए आवश्यक है कि वे-
सुविधानुसार अपना कार्यक्षेत्र निर्धारित करे।
सत्कर्म- योग्य एवं अनुकरणीय कार्य करे।
जीवन में भौतिकतावादी प्रवृति का सीमित समावेश करें।
3.चतु:शिक्षाव्रत- गृहस्थों के लिए चार शिक्षा व्रतों का पालन आवश्यक है-
देश विरति-किसी ऐसे क्षेत्र का निर्धारण जिसकी ओर ध्यान भी न जाए।
सामयिक व्रत- तीनों संध्याओं का सांसारिकता से विरक्ति और चिंतन।
कथा-श्रवण-अष्टमी तथा चतुर्दशी को ऋषियों की भांति जीवन-यापन और धार्मिक कथाओं का श्रवण।
आदर भाव-विद्धान भिक्षुओं और ऋषिओं का स्वागत और सम्मान करना।
‌‌अन्य सिद्धांत
1. नारी स्वातंत्र-आध्यात्मिक क्षमता के विकास और मोक्ष प्राप्ति की स्वतंत्रता नारियों को भी है। श्रमणी तथा श्राविका के रूप में नारियों का दो वर्ग था।
‌‌2.आचार तत्व-वाहृय शुद्धि की अपेक्षा अंत करण की शुद्धि आवश्यक है। व्रत के साथ संयमित और सदाचारपूर्ण जीवन मोक्ष प्राप्ति का साधन है।
3.नग्नता-आत्मबल एवं कठोर तपस्या करने की शक्ति प्राप्त करने के लिए नग्नता आवश्यक है।
4.पाप- मोक्ष या निर्वाण की प्राप्ति में 18 प्रकार के पाप बाधक है और वे है-प्राणतिपात असत्य मैथुन चोरी परिग्रह मान क्रोध मायामोह लोभ राग दोषारोपण निन्दा द्धेष कलह चुगली असंयम छलकपट और मिथ्या।
जैन धर्म के व्यावहारिक सिद्धात में पंच महाव्रतों का पलान गृहस्थों के लिए कठिन था। इसलिए उनके लिए महाव्रतों की जगह पंच अणुव्रतों की स्थापना की गयी। इसके तहत गृहस्थों को कठोर नियमों के मुक्ति प्रदान की गयी।

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